शनिवार, 13 नवंबर 2010

जैसे रूस-अमेरिका मिले वैसे सपा-बसपा भी मिलेंगे!


कौशलेंद्र प्रताप यादव

मुल्क की मौजूदा सियासी जमीन पर दलित पिछड़ा गठबंधन की बात करना उतना ही अजूबा है ,जितना अलास्का में शेर देखना।कारण यह कि जिस उत्तर प्रदेश में इसकी संभावनाओं ने जोर पकड़ा ,इसकी वहीं भ्रूण हत्या कर दी गई।इसकी संभावनाओं पर आंतरिक खतरे भी उतने ही ज्यादा थे जितने बाह्या आक्रमण। राजनीति की बिसात पर गठबंधनों का बनना- बिगड़ना कोई नई बात नहीं, लेकिन यह जोड़ कुछ ऐसे टूटा कि इसने अपने पीछे तमाम संभावनाओं पर तुषारापात कर दिया।

1993 में माननीय कांशीराम के प्रयासों से राज्य में सपा-बसपा का सियासी गठजोड़ उनकी कीमियागिरी का नतीजा था,साथ ही उनकी मजबूरी भी।कांशीराम ने अपनी जन्मभूमि पंजाब और कर्मभूमि महाराष्ट्र को छोड़कर उत्तरप्रदेश को ही अपनी युद्धभूमि चुना था।उनके शब्दों में, उत्तर प्रदेश ही वह जगह है ,जहां से देश की शासक जातियां ऑक्सीजन प्राप्त करती हैं।हम यह गला दबाने में कामयाब हो जाएंगे तो देश से मनुवाद अपने आप समाप्त हो जाएगा।कांशीराम ने देर- सबेर प्राय सभी दलों से गठबंधन किया,लेकिन सवर्ण वर्चस्व की पार्टियों से गठबंधन पर उनको सकारात्मक नतीजे नहीं मिल रहे थे।कारण कि बसपा का समर्थक तो गठबंधन के उम्मीदवारों को वोट देता था,लेकिन सवर्ण वोटर बसपा के दलित उम्मीदवारों को कभी वोट नहीं करते थे।इसलिए कांशीराम एक भरोसेमंद साथी की तलाश में थे और मुलायम सिंह भी बसापा से गठजोड़ करने को उतावले थे। कांग्रेस से उनका गठबंधन टूट चुका था। भाजपा के साथ जा नहीं सकते थे। उनका पैतृक संगठन जनता दल भी उस समय उन पर भारी पड़ रहा था।
1991 के चुनाव में मुख्यमंत्री रहने के बावजूद मुलायम सिंह की सीटें जनता दल से कम आई थीं। इस प्रकार दोनों की जरूरतों ने सपा- बसपा गठजोड़ को मूर्तरूप दिया ।
जैसे ही यह गठबंधन हुआ,दलितों –पिछड़ों ने इसे हाथों – हाथ लिया। इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में राम लहर को जमींदोज करने का काम किया और गली-कूचों में यह नारा बुलंद हुआ,मिले मुलायम-कांशीराम,हवा में उड़ गए जयश्रीराम।यह भारतीय राजनीति का पहला ऐसा गठबंधन था,जिसे स्वीकार करने में इसके वोटरों को कोई समस्या नहीं आई। लेकिन इस गठजोड़ की संभावनाओं को देखकर भगवा खेमें ने इस पर साजिशों का ग्रहण लगाना शुरू कर दिया।उसने सपा-बसपा के नेताओं को चुग्गा डालना शुरू किया जिसे तत्कालीन परिवेश में न मुलायम समझ पाए और न ही मायावती।लेकिन इसे तत्कालीन भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राजनाथ सिंह के एक बयान से जरूर समझा जा सकता है।जब यह गठबंधन टूटा और भाजपा के समर्थन से बसपा सत्ता में आई , तो राजनाथ सिंह से मीडिया ने पूछा कि यह सरकार कितने दिन चलेगी। उनका जवाब था, यह सरकार चले या न चले,हमारा मकसद पूरा हुआ।
दोनों के अलगाव के बाद लोग इस चिंगारी को अपने फायदे –घाटे के अनुसार हवा देते रहे।कांग्रेस और भाजपा ने बारी-बारी से सपा-बसपा से अलगाव को ऑक्सीजन दिया।आज की तारीख में सपा-बसपा का नेतृत्व अपनी अक्ल से कम ,कांग्रेस और भाजपा के एजेंट के रूप में एक –दूसरे के खिलाफ ज्यादा काम करता है। अब यह संभावना दो व्यक्तियों के अहं का शिकार हो चुक है।इसलिए दलित-पिछड़ा गठबंधन का दोबारा आरंभ इस बार सतर्कता से करना होगा।1993 में जो गठबंधन हुआ था, उसे सड़कों पर संघर्ष करने का मौका नहीं मिला। कोई वृहद सामाजिक- आर्थिक कार्यक्रम नहीं बन पाया। इसीलिए यह चारों खाने चित हो गया ।
अब इसे सामाजिक –आर्थिक कार्यक्रमों के आधार पर लागू किया जाना चाहिए।आवश्यक नहीं कि इसकी शुरूआत उत्तर प्रदेश से ही हो।अन्य राज्यों से भी इसका मंगलाचरण किया जा सकता है।वहां भी उतनी ही उर्वर परिस्थितियां मौजूद हैं।जब तक सपा-बसपा एक दूसरे के नजदीक नहीं आते, तब तक वे अपने दल के भीतर ही दलित पिछड़ा गठबंधन का फार्मूला लागू कर सकते हैं। इसके तहत आधी-आधी सीटें दलितों-पिछड़ों के बीच बांटी जा सकती है औऱ मंत्रीपरिषद में भी इसी अनुपात में भागीदारी दी जा सकती है।
दरअसल, दलित और पिछड़ा वर्ग के लोग एक दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी हैं।दोनों की सामाजिक –आर्थिक परिस्थितियां एक हैं। उनके अन्य कोई गठबंधन गले नहीं उतरता। आज की तारीख में दलित-पिछड़ा एक गठबंधन मुंगेरीलाल का हसीन सपना जरूर लगता है, लेकिन देर –सबेर दोनों घटक दूसरी जगहों से लुट –पिटकर एक दूसरे के पास ही लौ़टेंगे। शीत युद्ध में किसी ने रूस- अमेरिका दोस्ती की कल्पना नहीं की थी,जर्मनी के एकीकरण की बात कौन सोच सकता था ।लेकिन ये सब हुए। किसी दौर में बसपा के ब्राह्मण प्रेंम और सपा के क्षत्रिय प्रेम की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, लेकिन राजनीति जो कराए कम है ।
भास्कर से साभार

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