सोमवार, 8 नवंबर 2010

दो आँखें, दो छवियाँ


दलित महिलाएं (फ़ाईल फ़ोटो)
हाल ही में दिल्ली में एक दलित सम्मेलन का आयोजित किया गया.
खचाखच भरे मावलंकर हॉल में मंच पर एक बच्ची खेल रही थी. पहले ही मंच की चकाचौंध में कुर्सी पर बैठने से अकबकाई उसकी माँ बेटी को फुसलाने की कोशिश कर रही थी.
लेकिन बेटी माँ की गोद में बैठने की बजाय रोशनी के स्रोत की तरफ़ भाग रही थी. कंप्यूटर के प्रोजेक्टर के सामने खड़े होने से उसकी परछाईं मंच के पीछे बड़ी स्क्रीन पर फैल रही थी.
पता नहीं क्यों, उस दो-ढाई साल की बच्ची की बेलौस अदाओं में मुझे सामाजिक न्याय आंदोलन के भविष्य की तस्वीर दिखाई दी. मानो इस आंदोलन को अब सत्ता की गोद में उपेक्षित बच्चे की तरह बैठना क़बूल नहीं है.
मानो सदियों से मैला उठाने वाला समाज अब टोकरी नहीं, आवाज़ उठाना चाहता है, हाथ में झाड़ू नहीं किताब लेना चाहता हैं, सीवर में नहीं इस देश के अंतर्मन में उतर कर इसकी आत्मा पर जमी मैल को धो देना चाहता है.
सुदूर तमिलनाडु में पुदुकोट्टई से इस लड़की का दिल्ली तक आना एक छोटी बात नहीं है. सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन द्वारा देश की राजधानी में आयोजित यह सम्मलेन अपने आप में एक ऐतिहासिक घड़ी थी.
आज़ाद भारत में शायद पहली बार देश भर के सफ़ाई कर्मचारी समाज के प्रतिनिधि देश के पाँच कोनों -- कन्याकुमारी, श्रीनगर, देहरादून, डिब्रूगढ़ और खुर्दा -- से यात्राएँ निकालते हुए दिल्ली दरबार में दस्तक देने आए थे.

नाम की महिमा

जिसका नाम नहीं हो, दिल्ली दरबार उसकी पहचान नहीं करता. इस ऐतिहासिक सम्मलेन में दलित समाज के नाम पर दुकान चलाने वाले ज़्यादातर नेता अफ़सर और मंत्री नदारद थे.
इसी लेख से
बच्ची का नाम था सत्या, पता नहीं बड़ी होकर नाम के आगे क्या लिखेगी. शायद इस पूरे समाज की तरह गुमनाम रहना पसंद करेगी.
अपने किसी राष्ट्रव्यापी नाम के अभाव में यह समाज दूसरों के दिए मैले नामों से पहचाना जाता है -- मेहतर, भंगी, चूड़ा, लालबेगी, मादिगा, रेल्ली, मादिगारू, थोत्ति, अरुन्धतियार.
गांधीजी के ज़रिए दिया नाम 'हरिजन' ख़ारिज हो चुका है.
यह समाज 'दलित' है, लेकिन सिर्फ़ दलित नहीं. 'महादलित' अभी प्रचलित नहीं है. 'वाल्मीकि' या 'स्वच्छकार' नामकरण की कोशिशें जारी हैं.
जिसका नाम नहीं हो, दिल्ली दरबार उसकी पहचान नहीं करता.
इस ऐतिहासिक सम्मलेन में दलित समाज के नाम पर दुकान चलाने वाले ज़्यादातर नेता अफ़सर और मंत्री नदारद थे. न समाज कल्याण मंत्री, न अनुसूचित जनजाति आयोग के कर्ताधर्ता, न ही सफ़ाई कर्मचारी आयोग वाले वहाँ थे.
उससे फ़र्क़ भी नहीं पड़ने वाला था क्योंकि भारत सरकार में इन विभागों की वही हैसियत है जो गाँव में दलित की होती है. बस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हर्षमंदर, अरुणा रॉय और ज्यां द्रेज़, राज्य सभा के सदस्य प्रोफ़ेसर मुन्गेकर और डी राजा, कुछेक सहृदय बुद्धिजीवी और पत्रकार ही मौजूद थे इस ऐतेहासिक घड़ी को देखने के लिए.
शायद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद अगर इस सवाल को क़ायदे से उठाए तो सच्चर कमेटी की तर्ज़ पर स्वच्छकार समाज की हालत पर ग़ौर करने के लिए प्रधानमंत्री की एक विशेष समिति बन जाए.

परिवर्तन

शुष्क शौचालय कि प्रथा को ग़ैरकानूनी बनाने वाला क़ानून पास हुए सत्रह साल बीत चुके हैं. लेकिन आज भी कई लाख लोग आज भी अपने सर पर मैला उठाने को अभिशप्त हैं.
इसी लेख से
बच्ची की माँ मंच पर इसीलिए थी कि उसने टोकरी छोड़ दी थी. ज़ाहिर है इस घड़ी में सबका ध्यान सर पर मैला उठाने की घिनौनी प्रथा पर रहा.
'सामाजिक परिवर्तन यात्रा' का मुख्य उद्देश्य देश से मैलाप्रथा का उन्मूलन था.
शुष्क शौचालय की प्रथा को ग़ैरकानूनी बनाने वाला क़ानून पास हुए सत्रह साल बीत चुके हैं. लेकिन कई लाख लोग आज भी अपने सर पर मैला उठाने को अभिशप्त हैं. सर्वोच्च न्यायालय पूछ रहा है कि ऐसा क्यों तो राज्य सरकारें बेशर्मी से झूठे हलफ़नामे दायर कर रही हैं.
राष्ट्रमंडल खेलों को देश की इज़्ज़त का सवाल मानकर उसमें हज़ारों करोड़ रुपये फूंकने वाली सरकार के लिए ये इज़्ज़त का सवाल नहीं है. उसकी जेब में पैसे नहीं है. इस संदर्भ में यह यात्रा आगे का रास्ता दिखाती हैं.
सरकार के झूठे वादों पर उम्मीद बांधने के बजाय अब इस समाज ने ख़ुद मैलाप्रथा को ख़त्म करने की ठान ली है, इस साल की 31 दिसंबर की समय सीमा तय कर ली है.
माँ ने तो टोकरी छोड़ दी लेकिन बड़ी होकर सत्या क्या करेगी? स्वच्छकार समाज की चुनौती सिर्फ़ टोकरी छोड़ने तक सीमित नहीं है. इस नए पड़ाव पर अब वे शिक्षा और रोज़गार का सवाल उठा रहे हैं.
क़ानून में शिक्षा का अधिकार भले ही मिल गया हो, वास्तव में इस समुदाय में कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या नगण्य प्राय है.

आरक्षण

जम्मू और कशमीर में आज भी पंजाब से आए वाल्मीकि समाज के सफ़ाई कर्मचारियों के स्नातक बच्चों के लिए सफ़ाई कर्मचारी के सिवा और किसी सरकारी नौकरी में पाबंदी है. बाक़ी जगह यह बंदिश क़ानून तो नहीं समाज बंधता है.
इसी लेख से
जम्मू और कशमीर में आज भी पंजाब से आए वाल्मीकि समाज के सफ़ाई कर्मचारियों के स्नातक बच्चों के लिए सफ़ाई कर्मचारी के सिवा और किसी सरकारी नौकरी में पाबंदी है. बाक़ी जगह यह बंदिश क़ानून तो नहीं समाज बांधता है. सफ़ाई के काम में तो शत प्रतिशत आरक्षण है, लेकिन बाक़ी नौकरियों में न के बराबर.
अब तो निजीकरण के चलते नगरपालिका की नौकरी पर भी ठेकेदार की तलवार लटक रही है. सीवर साफ़ करने वाला काम आज भी इस अमानवीय दशा में होता है कि जान का ख़तरा हमेशा बना रहता है.
कहने को अन्य सरकारी नौकरियों में आरक्षण है, लेकिन शिक्षा के अभाव में इस समुदाय को आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है.
फ़िलहाल सफ़ाई कर्मचारी आन्दोलन ने अपने मांगपत्र में इस पेचीदा सवाल को नहीं रखा है, लेकिन देर सवेर आरक्षण के भीतर महादलित समुदायों के कोटा का सवाल उठेगा ही. पंजाब में आदि धर्मं समाज इस सवाल को पहले से उठा रहा है.
जो हाल सरकारी नौकरी में है, उससे बुरा हाल राजनीति में है. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर इस समाज के प्रतिनिधि कहीं दिखाई नहीं देते.
आज़ादी के बाद से कांग्रेस से बंधे इस समाज को अगर किसी एक पार्टी ने सबसे अधिक नज़रंदाज़ किया है तो स्वयं कांग्रेस है.
न जाने क्यों कंप्यूटर प्रोजेक्टर की रौशनी में चमकती सत्या की दो आँखों में मुझे सत्याग्रह की दो छवियाँ दिखाई दीं. एक आँख में बाबा साहब अंबेडकर का आक्रोश, दूसरी में महात्मा गाँधी की करुणा
कांग्रेस हो या भाजपा, हर पार्टी के दलित सेल पर चंद सक्षम दलित जातियों का कब्ज़ा है. बसपा भी इसका अपवाद नहीं है. इसलिए अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि दलितों में दलित की आवाज़ उठाने के बजाय अपनी जाति यानि दलितों में अगड़े समुदाय के स्वार्थ के प्रतिनिधि बन जाते हैं.
कभी कभार इस समुदाय से बूटा सिंह जैसा नेता राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचता भी है तो खलनायक के रोल में. लेकिन मुख्यधारा की राजनीति के बाहर आज इस समाज के पास बेज़्वाडा विल्सन और दर्शन रत्न रावण जैसे नेता हैं.
टोकरी और नौकरी से भी बड़ा सवाल है इज्ज़त का. जिस मंच पर सत्या खेल रही थी उसपर बड़े अक्षरों में लिखा था 'चुप्पी तोड़ो'. भगवान दास, ओम प्रकाश वाल्मीकि और सुशीला तान्क्बोरे की परंपरा में नए लेखक भी तैयार हो रहे हैं.
पंजाब से आई युवा कवियित्री नीलम दिसावर अपने समाज की महिलाओं के दर्द को जुबान दे रहीं थीं -- 'जिस देश में गंगा बहती है, उस देश में औरत सहती है.'
हॉल में बैठे लोग सर उठाने के अंजाम से अनजान नहीं थे. हरियाणा में गोहाना और फिर मिर्चपुर के अग्निकांड की घटनाएँ बहुत पुरानी नहीं हुई हैं.
इन दोनों घटनाओं में सरकार आज भी दबंग जाति के अपराधियों को बचाने पर तुली हुई है. लेकिन आत्मसम्मान का जज़्बा किसी भी त्रासदी की याद से ज़्यादा मज़बूत था.
सम्मलेन स्थल में चारों ओर डा. अंबेडकर की तस्वीरें थीं, हर होंठ पर 'जय भीम' का नारा था. न जाने क्यों कंप्यूटर प्रोजेक्टर की रौशनी में चमकती सत्या की दो आँखों में मुझे सत्याग्रह की दो छवियाँ दिखाई दीं. एक आँख में बाबा साहब अंबेडकर का आक्रोश, दूसरी में महात्मा गाँधी की करुणा.
(बी.बी.सी.हिंदी से साभार )

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