रविवार, 19 सितंबर 2010

भेद-भाव के कारण क्या है ?

घिनौने हिन्दू धर्म का और भी घिनौना रूप। समयान्तर पत्रिका के नवंबर 2010 अंक में इस पुस्तक कि समीक्षा छपी है। 

लेखक -- दीवान सिंह बजेली
डार्लिंग जीः किश्वर देसाई; अनु. सोनल मित्रा; हार्पर कोलिंस; पृ.ः 442; मूल्यः 299
पुस्तक लेखक का घिनौना मनुवादि रूप देखिये-- " बलराज जिन्होंने फिल्म में अभिनय के लिए अपना नाम बदलकर सुनील रखा क्योंकि फिल्मों में बलराज साहनी एक प्रसिद्ध नाम पहले से ही विद्यमान था। बलराज का जन्म एक महिवाल ब्राह्मण परिवार में हुआ था जून 6, 1929 को जो विभाजन के समय पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। उनके पिता दीवान रघुनाथ दत्त इलाके के एक प्रभावशाली व्यक्ति थे। जब बलराज की उम्र छोटी थी उनके पिता की मृत्यु हो गई। बलराज ने मैट्रिक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की पर अभावों के कारण आगे नहीं पढ़ सके और मिलिट्री में भती हो गए। विभाजन के समय उनका परिवारµमां, भाई और बहिनµतबाह हो गए। तब बलराज लखनऊ में थे। लंबे अंतराल के बाद बलराज अपने परिवार से मिल पाए। .........किश्वर पुस्तक का आरंभ दिलीपा से करती है। संभवतः बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि दिलीपा नर्गिस की नानी थी। वह बलिया की रहने वाली एक ब्राह्मणी थी। वह बाल विधवा कष्टकारक व अपमान से भरा जीवन बिताने के लिए बाध्य थी। कट्टरपंथी ब्राह्मण समाज ने उसका जीवित रहना दूभर कर दिया था। कहा जाता है कि वह चिलचिला के एक सारंगी वादक शेख मियांजान के संपर्क में आई और उनके साथ उनकी पत्नी के रूप में रहने लगी। मियांजान गाने-बजाने वाली औरतों के साथ काम करते थे। मियांजान व दिलीपा की पुत्री हुई जिसका नाम था जद्दनबाई जो एक प्रसिद्ध गायिका बनी। बाद में जद्दनबाई बंबई की तत्कालीन तथाकथित बड़ी सोसाइटी की सक्रिय सदस्य बनी और अपने को फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित करने में सफल हुईं।"



देखा आपने, सुनील दत्त और नर्गिस कि महानता उनके अप्रतिम प्रेम,श्रेष्ठ अभिनय,उनकी निस्स्वार्थ समाज सेवा से भी बढ़ कर लेखक के अनुसार यह थी कि दोनों न केवल ब्राह्मण थे बल्कि उच्च कुलीन ब्राह्मण थे। मुसलमान बनने के बाद भी नर्गिस कि नानी में लेखक को उच्च कुलीन ब्राह्मण रक्त ही नज़र आया। थू है ऐसे लेखक और धर्म पर जिसमें इंसान का पीछा न तो जाति छोडती है और जाति पर गर्व करनेवाले उसे छोडने में अपनी हेठी समझते है.

जातीय अहंकार का यह हिस्सा देखने लायक जो है .

3 टिप्‍पणियां:

  1. छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी. यह उन्होंने ठीक कहा, क्योंकि हिन्दू समाज में शूद्रों को अछूत नहीं समझा जाता था.
    1.वैदिक कालः
    वैदिक काल में सभी का दर्जा समान था. ऋग्वेद में लिखा हैः-
    “सं गच्छध्वं सं वदध्वं वो मनासि जानताम” (ऋ.1-19-2)
    “समानी प्रपा सह वोन्न भागः समाने योक्त्रे सह वो यूनज्मि सम्यंचोअग्निम् समर्यतारा नाभिभिवाभितः” (अ. 3-30-6)

    अर्थात्‌:-हे मनुष्यो, मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम सबका मन एक हो, तुम्हारा खानपान इकट्‌ठा हो, मैं तुमको एकता के सूत्र में बाँधता हूँ. जिस प्रकार रथ की नाभि में आरे जुड़े रहते हैं, उस प्रकार एक परमेश्वर की पूजा में तुम सब इकट्‌ठे मिले रहो.

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  2. 2. रामायण कालः
    रामायण काल में भगवान राम ने भीलनी के जूठे बेर खाए और वानरों की सेना बनाकर लंका पर चढ़ाई की. रावण पर विजय पाकर सीता को ले आए. ऋषि वाल्मीकि से ऊँची और श्रेष्ठ जाति वालों ने ब्रह्मज्ञान हासिल किया. माता सीता बनवास मिलने पर वाल्मीकि आश्रम में रहीं और वहाँ ही लव और कुश को जन्म दिया.

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  3. क्या शूद्र अछूत थे? चारों वर्णों के गोत्र ऋषियों के नाम पर प्रचलित थे. पहले ये सात ही गोत्र थे, फिर बाद में ज्यादा हो गए. (1) विश्वामित्र (2) जमदग्नि (3) भरद्वाज (4) गौतम (5) अत्रि (6) वशिष्ठ (7) कश्यप. अब भी अगर सरकारी जाति कोष पढ़े जाएँ तो पता चलेगा कि हिन्दुओं में बहुत सी उपजातियाँ और गोत्र समान हैं. कई उपजातियाँ और गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में अब भी मिलते हैं.

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