गुरुवार, 5 अगस्त 2010

जातीय जनगणना के पक्ष में खुलकर आये दिग्विजय

दैनिक जागरण ०६-०८-२०१० से साभार-


जातीय जनगणना के पक्ष में खुलकर आये दिग्विजय 
नई दिल्ली [राजकिशोर]। जातीय जनगणना पर कांग्रेस अभी अपना रुख स्पष्ट नहीं कर सकी है लेकिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने पत्ते खोल पार्टी नेतृत्व पर दबाव बढ़ा दिया है।
उन्होंने जातीय जनगणना का न सिर्फ पुरजोर समर्थन किया बल्कि कहा कि इसका विरोध करने वाले सच्चाई से भाग रहे हैं। यहां काबिलेगौर है कि नक्सल मुद्दे पर दिग्विजय के निशाने पर रहे गृह मंत्री पी. चिदंबरम ही कांग्रेस में जातीय जनगणना के सबसे ज्यादा खिलाफ माने जाते हैं।
बेंगलूर के नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया की तरफ से जातीय जनगणना पर आयोजित एक संगोष्ठी में दिग्विजय ने तमाम सांसदों और बुद्धिजीवियों की मौजूदगी में जातीय जनगणना की जोरदार पैरवी की। इस कार्यक्रम में कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को भी आना था लेकिन शायद कांग्रेस का रुख स्पष्ट न होने के चलते वह कन्नी काट गए।
यही नहीं, कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन ने भी कहा, 'अभी पार्टी इस मसले पर विचार-विमर्श कर रही है। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद कांग्रेस अपना रुख जाहिर करेगी।' यह याद दिलाने पर कि मंत्री समूह ने 7 अगस्त तक सभी राजनीतिक दलों से इस मसले पर राय मांगी है? नटराजन का जवाब था कि अभी उसमें वक्त है।
बहरहाल, कांग्रेस के दूसरे नेताओं से जुदा दिग्विजय ने बिना किसी लाग-लपेट के जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया। कांग्रेस के ही सांसद व ओबीसी संसदीय फोरम के अध्यक्ष हनुमंत राव की मौजूदगी में दिग्विजय ने साफ कहा, 'जाति भारत में एक सचाई है, जिसे सभी राजनीतिक दल और समाज स्वीकार कर चुका है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि जाति आधारित जनगणना के विरोध के पीछे तर्क क्या है? इससे क्या नुकसान होने जा रहा है? और, इसमें परेशानी क्या है? अब वक्त आ गया है कि बरसों से अटकी इस प्रक्रिया को शुरू किया जाए।'
दिग्विजय ने समता मूलक समाज के लिए जातियों का सही आंकड़ा होने का तर्क देते हुए कहा, 'मैं जातीय जनगणना का पुरजोर तरीके से समर्थन करता हूं क्योंकि यह एक सचाई है।' बाद में पत्रकारों के इस सवाल पर कि क्या कांग्रेस भी आपके मत की है? उनका जवाब था, 'हर राजनीतिक दल जाति की अहमियत जानता व समझता है।'
उल्लेखनीय है कि गृह मंत्री चिदंबरम जाति आधारित जनगणना के विरोध में हैं। उनके नायब गृह राज्य मंत्री अजय माकन तो सभी सांसदों को पत्र लिखकर जातीय जनगणना के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। कांग्रेस अभी खुद इस पर अंतिम निर्णय नहीं ले सकी है। ऐसे में दिग्विजय के इस मसले पर मुंह खोलने से यह मुद्दा गरमा गया है। भाकपा सांसद डी. राजा ने पूरी तरह दिग्विजय की बात का समर्थन किया। दिग्विजय को कामरेड की संज्ञा देते हुए राजा ने कहा, 'हमें उम्मीद है कि मंत्रिसमूह को सद्बुद्धि आएगी और वह जाति आधारित जनगणना के समर्थन में फैसला देगा।'

नहीं बंटेगा समाज
Story Update : Friday, August 13, 2010    11:02 PM
जाति जनगणना कराने के मुद्दे पर ओबीसी नेताओं को एक मंच पर लाने की पहल करने वाले महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एनसीपी के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल से संजय मिश्र की बातचीतः

क्या यह सही नहीं कि सियासत की मजबूरी में सरकार जाति गणना को राजी हुई है?
इसमें सियासत खोजना ओबीसी के साथ नाइंसाफी होगी। पिछले 80 सालों में हमारे पास सही आंकड़ा नहीं है कि ओबीसी की संख्या कितनी है। हम काफी देरी से यह फैसला कर रहे हैं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के पहले इसकी प्रक्रिया पूरी हो जानी चाहिए थी। चौदहवीं लोकसभा की संसदीय समिति ने भी ओबीसी की गणना की सिफारिश की थी। उस समिति की अध्यक्ष भाजपा नेता सुमित्रा महाजन थीं। समिति का कहना था कि ओबीसी की सही संख्या का पता नहीं होने की वजह से पिछड़े वर्गों के विकास कार्यक्रमों की योजनाएं विफल होती हैं।

सरकार ओबीसी पर राजी हुई है, तो अब इसके भीतर भी जाति गिनती की मांग कहां तक उचित है?
जनगणना के फार्म में एससी, एसटी, एनटी और अदर्स मतलब ओपन कैटेगरी मार्क करने के विकल्प पहले से हैं। हमारी मांग बस इतनी थी कि इसमें ओबीसी का एक विकल्प बढ़ाया जाए। इससे पता तो चले कि देश में ओबीसी की तादाद कितनी है। यह केंद्र सरकार पर निर्भर है कि वह ओबीसी गणना में जाति उल्लेख कैसे कराएगी।

जातिगत जनगणना ओबीसी आरक्षण बढ़ाने की अगली सीढ़ी नहीं है?
सरकार आंकड़ों का उपयोग सामाजिक-शैक्षणिक विकास को तय करने में करे, तो इसमें बुराई भी क्या है। मंडल आयोग ने तीन दशक पहले ओबीसी की संख्या 52 फीसदी बताई थी। उसने तो 1981 से ही ओबीसी की स्वतंत्र गणना कराने की सिफारिश की थी। रही बात आरक्षण की, तो अनुमानतः इस समय ओबीसी की तादाद कुल आबादी का 54 प्रतिशत है, जबकि हमें 27 फीसदी ही आरक्षण मिलता है।

सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर रखी है। ऐसे में यह पहल सामाजिक बंटवारे का नया पिटारा नहीं खोलेगी?
तात्कालिक प्रतिक्रियाओं की वजह से व्यापक सामाजिक बदलावों को तो नहीं रोका जा सकता। इस बात की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए कि जब भी मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत केंद्र या राज्य की तरफ से पहल होती है, तो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में यह पूछा जाता है कि ओबीसी की संख्या कितनी है? मुश्किल यह है कि ओबीसी की तादाद का जो आंकड़ा हमारे पास है, उसे अदालतें नहीं मानतीं। ऐसे में हमारे पास ताजा प्रामाणिक गणना कराने के अलावा कोई रास्ता है क्या?

ओबीसी के मुद्दे पर आप उत्तर के नेताओं के साथ मिलकर मुखरता से आवाज उठा रहे हैं, मगर महाराष्ट्र में जब उत्तर भारतीयों पर हमले होते हैं, तब कोई ऐसी पहल क्यों नहीं होती?
देश ही नहीं, दुनिया में सामाजिक दूरियां मिट रही हैं। ऐसे में महाराष्ट्र हो या कोई और प्रदेश, किसी को क्षेत्र विशेष के आधार पर नागरिक अधिकारों से जबरदस्ती वंचित नहीं किया जा सकता। हम मनसे या शिवसेना के नजरिये का समर्थन नहीं करते। हमारा साफ मानना है कि सभी को कहीं भी किसी तरह अपना रोजी रोजगार करने का हक है। लखनऊ और बनारस से लेकर पटना तक मैं बीते सालों में कई बार जाकर यह बात कह चुका हूं।

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