रविवार, 1 अगस्त 2010

ये 'हिन्दुस्तानी'

भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डूबे 
ये 'हिन्दुस्तानी'
देश को हथियाने पर आमादा ये बता रहे है की इनकी जाती हिन्दुस्तानी है जबकि यह देश अरबों भारतियों का है देश और जाती का फर्क इन्हें समझ नहीं आ रहा है जबकि इसी हिंदुस्तान में जातियों की सूचि दर सूचि जारी करने वाले अब ये क्यों ये बता रहे की उनकी जाती हिन्दुस्तानी है |

 करोरों दबे कुचलों की लड़ाई में जातियों में बाँट कर राज करने वाले अब चिल्ला रहे है की जातीय गणना नहीं होगी. यह कहीं  लिख लें जातीय गड़ना नहीं तो इनको इसक खमियाजा भुगतना होगा . इन देश द्रोहियों को ये समझ क्यों नहीं आ रहा की आंकड़े छुपाना देश द्रोह है न की आंकडे जुटाना .

जनगणना में जाती गिनो 

नहीं तो देश बांटों १५ और ८५ में |

जिसकी जीतनी आवादी 

उसकी उतनी हिस्सेदारी |

धरती पर , दौलत पर 

सम्पदा और अधिकारों पर |

डॉ.लाल रत्नाकर
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

किताब में खून
सहीराम
Story Update : Sunday, August 08, 2010    8:46 PM
खून-पसीना बहानेवाले बेचारे कहां शिकायत करते हैं जी? हमारे यहां किसानों को देख लो, शिकायत करने के बजाय वे आत्महत्या करना ही ज्यादा पसंद करते हैं। पर जिन्हें लगता है कि उनके खून को खून नहीं माना जा रहा, तो वे पलटकर यह शिकायत जरूर करते हैं कि तुम्हारा खून खून और हमारा खून पानी? वैसे अगर आपका खून खौलता नहीं है, तो धर्म के नाम पर ललकार लगानेवाले भी आपके खून को पानी करार देने पर ही आमादा रहते हैं। ऐसी शर्तों और ललकारों के चलते कितने ही निर्दोषों का खून पानी की तरह बह जाता है। हालांकि महादान मानकर रक्तदान करने वाले लोगों को भी कई बार बाद में पता चलता है कि उनका खून नाली में बहा दिया गया। इधर देश की राजधानी दिल्ली में तो सड़कों पर ही काफी खून बहता रहता है। हमारे खाप वाले तो बेधड़क अपना ही खून बहा देते हैं।

हो सकता है, कभी खून की कद्र रही हो, हालांकि इतिहास ऐसी कोई गवाही नहीं देता। पर एक जमाना था, जब शायर पूछ लेते थे-ऐ रहबरे मुल्को कौम बता, यह किसका लहू है, कौन गिरा? अब कोई नहीं पूछता। हो सकता है खून ज्यादा हो गया हो। आबादी ज्यादा होने का स्यापा तो लोग ही करते हैं। पर खून चाहे कितनी ही इफरात में हो, यह तय है कि पानी जरूर घट गया। मिलता ही नहीं। कहीं इसीलिए तो लोग खून पानी की तरह नहीं बहाते? खैर, तब शायर लोग यह आगाही भी करते रहते थे-लहू पुकारेगा आस्तीं का। वैसे आस्तीन तो सांपों के पलने की जगह ही है। खून कभी तलवार पर अवश्य लगता था और वीरों के बारे में यह कहा जाता था कि उनकी तलवार खून की प्यासी रहती है। इधर तो भाई लोगों के शार्प शूटर ही खून के प्यासे रहते हैं। इधर दिल्ली के शहर कोतवाल ने कहा है कि जिन पुलिसवालों की वरदी पर खून लगा होगा, यानी जो घायलों को अस्पताल तक पहुचाएंगे, उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा। पुलिस में यह नया ही रिवाज होगा। अभी तक तो पुलिसवालों के हाथ ही खून से रंगे होते थे।

बहरहाल, इधर खून-पसीना, खून-पानी, खूंरेजी की शृंखला में एक नई चीज आई है खून-दौलत। सचिन तेंदुलकर की एक जीवनी आने वाली है, बताया जाता है कि उसके पन्ने उनके खून से रंगे हैं। इतिहास रक्तरंजित रहे हैं, सत्ताएं भी रक्तरंजित रही है, पर किताबें कभी नहीं। सचिन का तो पसीना ही बड़ा महंगा है साहब। तो सोचिए, खून कितना महंगा होगा। सचिन ने करोड़ों कमाए हैं और कमाएंगे। अपना खून भला इस तरह बेचने की क्या जरूरत थी! खून तो वे बेचते हैं, जिनके पास रोटी का कोई साधन नहीं। सचिन तो ऐसे नहीं हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन

प्रोफ. ईश्वरी प्रसाद जी का निधन  दिनांक 28 दिसम्बर 2023 (पटना) अभी-अभी सूचना मिली है कि प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद जी का निधन कल 28 दिसंबर 2023 ...