गुरुवार, 1 जुलाई 2010

पेट्रोल-डीजल की कीमत बाजार के भरोसे छोड़ना सही नहीं

अमर उजाला के सम्पादकीय से साभार-
[लेकिन जिस सरकार को इसकी परवाह ही नहीं है।]
दूसरा पहलू(अर्थव्यवस्था-और सामाजिक पिछड़ापन )परंजय गुहाठाकुरता
यह शुरू से कहा जाता रहा है कि आर्थिक उदारीकरण की नीति का लाभ सिर्फ अमीरों को मिलता है, गरीबों को इससे कोई फायदा नहीं होता। पेट्रो उत्पादों की कीमत से संबंधित यूपीए सरकार की नीति से यह साफ-साफ झलक जाता है। पिछले दिनों सरकार ने पेट्रोल-डीजल-केरोसिन और रसोई गैस के दाम बढ़ाए। इस मूल्यवृद्धि के खिलाफ सीटू ने पश्चिम बंगाल में बंद आयोजित किया। आगामी सोमवार को विपक्ष इस मूल्यवृद्धि के विरोध में राष्ट्रव्यापी बंद आयोजित करने जा रहा है। इसके बावजूद सरकार पसीजती नजर नहीं आती। जी-२० की बैठक से लौटते हुए प्रधानमंत्री ने पेट्रो पदार्थों में हुई मूल्यवृद्धि को वापस लेने से तो इनकार किया ही, यह तक संकेत दिया कि पेट्रोल की तर्ज पर डीजल को भी डीकंट्रोल किया जाएगा। यानी इस पर दी जा रही सरकारी सबसिडी अब पूरी तरह हटा ली जाएगी। इसका नतीजा यह होगा कि महंगा होकर डीजल अब पेट्रोल के बराबर हो जाएगा। सवाल यह है कि मनमोहन सिंह सरकार ऐसा क्यों कर रही है? वह तर्क दे रही है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए इसके सिवा उपाय नहीं है। ऐसा क्यों है कि अचानक मंत्रिमंडलीय समूह पेट्रो उत्पादों को प्रशासनिक मूल्य व्यवस्था से मुक्त करने की किरीट पारिख कमेटी की अनुशंसा को हरी झंडी दे देता है? इसके लिए ठीक यही समय क्यों चुना गया? क्या पेट्रोल-डीजल की कीमत को बाजार के हवाले करने का जी-२० की बैठक से कोई सीधा संबंध है? भूलना नहीं चाहिए कि जी-२० के मुल्क अपने यहां तेल सबसिडी पूरी तरह खत्म करने के हामी हैं, और इस दिशा में भारत के आगे बढ़ने का टोरंटो में स्वागत किया गया है। वहीं पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हमारे प्रधानमंत्री के बारे में कहा कि जब वह बोलते हैं, तब सारी दुनिया सुनती है। क्या इस तारीफ के लिए केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाए हैं, और अब डीजल को नियंत्रण मुक्त करने जा रही है? क्या सरकार को इस देश के आम लोगों की कोई चिंता नहीं है कि डीजल से सबसिडी पूरी तरह खत्म कर देने पर उसका क्या होगा? यह बेकार का तर्क है कि पेट्रोल-डीजल को डीकंट्रोल करना समय की जरूरत है। बेशक हम बहुत आगे बढ़ गए हैं, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस देश के ७० फीसदी लोग अब भी २० रुपये रोजाना पर गुजारा कर रहे हैं। कमोबेश यह तथ्य सरकार भी मानती है। अब अचानक यह सचाई सामने रखी जा रही है कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे मुल्कों में डीजल के दाम पेट्रोल से भी अधिक हैं। सवाल है कि क्या वहां आबादी का बड़ा हिस्सा भूख और बेरोजगारी से जूझता है? अगर नहीं, तोहमें अपनी आर्थिक व्यवस्था अमेरिका-इंग्लैंड जैसी क्यों बनाने के बारे में सोचना चाहिए? वहां पेट्रोल-डीजल के दाम घटने पर किराये घट जाते हैं। यहां खासकर निजी परिवहन सेवा में क्या ऐसा संभव है? जाहिर है, नहीं है। फिर तेल मूल्यों को बाजार के भरोसे छोड़ने का औचित्य क्या है? सरकार कह रही है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए पेट्रोल के बाद अब डीजल को सबसिडी से बाहर कर देना चाहिए। लेकिन मेरा मानना है कि सरकार की यह कवायद पूरी तरह राजनीतिक है। यूपीए सरकार आज इस स्थिति में है कि कोई उसे चुनौती नहीं दे सकता। मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा खुद हाशिये पर है। वाम दल अगर सरकार के साथ होते, तो वह यह कदम हरगिज नहीं उठा सकती थी। लेकिन लेफ्ट न सिर्फ सरकार के साथ नहीं हैं, बल्कि पिछली बार की तुलना में उनकी ताकत भी कम हो चुकी है। दूसरी तरफ सरकार की निरंकुशता का आलम यह है कि संसद में कटौती प्रस्ताव का भी अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। आम चुनाव में अभी कई साल हैं। ऐसे में, सरकार निरंकुश ढंग से चले, तो कोई उसका हाथ पकड़ने वाला भी नहीं है। असल बात यह है कि सरकार को अब खुद अपनी और तेल कंपनियों की फिक्र है। बाजार में पेट्रोल या डीजल जिस दाम पर मिलता है, उसका आधा सीमा और उत्पाद शुल्क के रूप में टैक्स ही होता है। इस टैक्स का ६० से ७० फीसदी हिस्सा केंद्र का होता है, शेष राज्य का। यानी इसमें राज्य की भागीदारी कम है। बावजूद इसके केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने पिछले दिनों तमाम राज्य सरकारों को चिट्ठी लिखकर कहा कि वे टैक्स की अपनी हिस्सेदारी कम करें। यानी केंद्र अपनी हिस्सेदारी में थोड़ी भी कमी करने के लिए तैयार नहीं है। फिर इस सरकार को भला जन हितैषी कैसे मानें? दरअसल सरकार को सलाह देने वाले लोग कॉरपोरेट कल्चर वाले हैं, जिन्हें देश की वास्तविक स्थिति से कोई लेना-देना नहीं। यही लोग तेल मूल्यों को बाजार के हवाले कर देने की सलाह देते रहे हैं। पेट्रोल पर पड़ने वाला बोझ तो चलिए, फिर भी वहन करने लायक है। लेकिन डीजल तो यातायात और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार है। इससे सबसिडी हटा लेंगे, तो क्या खेती महंगी नहीं हो जाएगी? जाहिर है, डीजल के बाद केरोसिन की बारी आएगी। कॉरपोरेट कल्चर वाले सरकारी सलाहकार तर्क देते हैं कि चालीस फीसदी केरोसिन में मिलावट कर उसे बाजार में बेच दिया जाता है, मिलावटी केरोसिन पड़ोसी देशों में चला जाता है, इसलिए इस पर सबसिडी देने का कोई मतलब नहीं है। वे यह नहीं सोचते कि तब भी साठ प्रतिशत केरोसिन का इस्तेमाल गरीब कर रहे हैं और वे ईंधन तथा रोशनी के लिए इसी पर निर्भर हैं। केरोसिन के मूल्य को बाजार के भरोसे छोड़ने का सीधा मतलब होगा देश के गरीबों से अन्याय करना। फिर सबसिडी हटा लेने से महंगाई और बढ़ेगी। लेकिन सरकार को इसकी परवाह नहीं है।
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जाति जनगणनाबायोमैट्रिक के नाम पर धोखा
दिलीप मंडल

केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने जाति गणना को कहने को तो हरी झंडी दे दी है, लेकिन वास्तविकता यह है कि मंत्रियों के समूह ने इस काम को बुरी तरह से फंसा दिया है। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों के समूह का जो फॉर्मूला दिया हैउसके आधार पर जाति की गणना अगले पांच साल तक जारी ही रहेगी (यह समय बढ़ सकता है) और जो आंकड़े आएंगे, उसमें देश की लगभग आधी आबादी को शामिल नहीं किया जाएगा। साथ ही आंकड़ों के नाम पर सिर्फ जातियों की संख्या आएगी। न तो जातियों और जाति समूहों की शैक्षणिक स्थित का पता चलेगा और न ही सामाजिक-आर्थिक हैसियत का। मंत्रियों के समूह की इस बारे में की गई सिफारिश पर बहस आवश्यक है क्योंकि इसे लेकर अभी काफी उलझन बाकी है।  
ओबीसी गिनती का प्रस्ताव औंधे मुंह गिरा
मंत्रियों के समूह ने उचित फैसला किया है कि जाति की गणना के दौरान सिर्फ ओबीसी की गिनती नहीं की जाएगीबल्कि सभी जातियों के आंकड़े जुटाए जाएंगे। वामपंथी दलों ने ओबीसी गिनती के लिए प्रस्ताव दिया था।[i] कुछ समाजशास्त्री भी चाहते थे कि सभी जातियों की गिनती न करके सिर्फ ओबीसी की गिनती कर ली जाए क्योंकि सवर्ण समुदायों के लिए सरकार की ओर से कोई कार्यक्रम या योजना नहीं है। उनका सुझाव था कि सिर्फ अनुसूचित जाति,जनजाति और ओबीसी की गिनती करा ली जाए।[ii]
जाति गणना के बदले ओबीसी गणना की बात करने वाले लोग जाति के आंकड़ों को सिर्फ आरक्षण और सरकारी योजनाओं के साथ जोड़कर देखते हैंजो बहुत ही संकीर्ण विचार है। जाति भारत में एक महत्वपूर्ण सामाजिक पहचान है और इससे जुड़े समाजशास्त्रीय आंकड़ों का व्यापक महत्व है। इसी नजरिए इस देश में धर्म (जिसके आधार पर देश टूट चुका है) और भाषा (जिसकी वजह से हुए दंगों में हजारों लोग मारे गए हैं) के आधार पर हर जनगणना में गिनती होती है। अगर समाजशास्त्रीय आंकड़े जुटाने का लक्ष्य न हो तो जनगणना के नाम पर सिर्फ स्त्री और पुरुष का आंकड़ा जुटा लेना चाहिए।
जाति गणना और बायोमैट्रिक की धांधली
जाति गणना पर मंत्रियों के समूह ने जो फॉर्मूला बनाया है उसमें एक गंभीर खामी यह है कि इसमें जाति की गिनती को जनगणना कार्य से बाहर कर दिया गया है। मंत्रियों के समूह ने फैसला किया है कि जाति की गणना नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के तहत बायोमैट्रिक ब्यौरा जुटाने के क्रम में कर ली जाएगी।[iii] बायोमैट्रिक ब्यौरा यूनिक आइडेंटिटी नंबर के लिए इकट्ठा किया जाना है। यानी जब लोग अपना यूआईडी नंबर के लिए जानकारी दर्ज कराने के लिए आएंगे तो उनसे उनकी जाति पूछ ली जाएगी। यह एक आश्चर्यजनक फैसला है। धर्मभाषाशैक्षणिक स्तरआर्थिक स्तर से लेकर मकान पक्का है या कच्चा तक की सारी जानकारी जनगणना की प्रक्रिया के तहत जुटाई जाती है और ऐसा ही 2011 की जनगणना में भी किया जाएगालेकिन जाति की गिनती को जनगणना की जगह यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर की बायोमैट्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की बात की जा रही है।
यहां एक समस्या यह है कि बायोमैट्रिक डाटा कलेक्शन करने के लिए यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी (जिसके मुखिया नंदन निलेकणी हैं, जिन्हें सरकार ने कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा दिया है) को पांच साल का समय दिया गया है। साथ ही पांच साल में देश में सिर्फ 60 करोड़ आईडेंटिटी नंबर दिए जाएंगे। इस बात में जिसको भी शक हो वह यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट - http://uidai.gov.in/ पर जाकर इन दोनों बातों को चेक कर सकता है कि बायोमैट्रिक डाटा कितने साल में इकट्ठा किया जाएगा और कितने लोगों का बायोमैट्रिक डाटा जुटाया जाएगा। इंटरनेट पर इस सरकारी साइट को खोलते ही सबसे पहले पेज पर ही ये दोनों बातें आपको दिख जाएंगी।
यानी प्रणव मुखर्जी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने जब बायोमैट्रिक दौर में जाति की गणना कराने की सिफारिश की थी, तो उन्हें यह मालूम था कि इस तरह जाति गणना का काम पांच साल या ससे भी ज्यादा समय में कराया जाएगा और इसमें भी देश के लगभग 120 करोड़ लोगों में सिर्फ 60 करोड़ लोगों के आंकड़े ही आएंगे।[iv]मंत्रियों के समूह ने देश के बहुजनों के साथ इतनी बड़ी धोखाधड़ी करने का साहस दिखाया, यह गौर करने लायक बात है। पांच साल बाद आए आकंड़ों का लेखा जोखा करने, अलग अलग जाति समूहों का आंकड़ा तैयार करने में अगर कुछ साल और लगा दिए गए, तो अगली जनगणना तक भी जाति के आंकड़े नहीं आ पाएंगे।
बायोमैट्रिक में गिनती यानी एससी/एसटी/ओबीसी की घटी हुई संख्या
15 साल में जिस देश में सभी मतदाताओं का मतदाता पहचान पत्र नहीं बना, उस देश में बायोमैट्रिक नंबर कितने साल में दिए जाएंगे, इसका अंदाजा भी आप लगा सकते हैं। मतदाता पहचान पत्र में तो सिर्फ मतदाता की फोटो ली जाती है जबकि बायोमैट्रिक नंबर के लिए तो फोटो के साथ ही अंगूठे का और आंख का डिजिटल निशान लिया जाएगा। इस काम के लिए कोई आपके घर नहीं आएगा बल्कि जगह जगह कैंप लगाकर यह काम किया जाएगा। इसमें कई लोग छूट जाएंगे जिनके लिए बारा बार कैंप लगाए जाएंगे। दर्जनों बार कैंप लगने के बावजूद अभी तक वोटर आईडी कार्ड का काम पूरा नहीं हुआ है। यह तब है जबकि वोटर आईडेंटिटी कार्ड बनवाने में राजनीतिक पार्टियां दिलचस्पी लेती हैं। बायोमैट्रिक नंबर दिलाने में पार्टियों की कोई दिलचस्पी नहीं होगी।
सरकार ने यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट पर साफ लिखा है कि यह नंबर लेना जरूरी नहीं है।[v] यानी कोई न चाहे तो यह नंबर नहीं लेगा। बहुत सारे लोग इसका कोई और महत्व न देखकर इसे नहीं लेंगे। ऐसे में जाति की गणना से काफी लोग बाहर रह जाएंगे। जबकि जनगणना के कर्मचारी हर गांव, बस्ती के हर घर में जाकर जानकारी लेते हैं और इसमें लोगों के छूट जाने की आशंका काफी कम होती है।
बायोमैट्रिक के नाम पर जिस तरह की गड़बड़ी हो रही है और उसे देखते हुए कोई सरकार कल यह फैसला कर सकती है कि आईडेंटिटी नंबर नहीं दिए जाएंगे। इस तरह जाति गणना का काम फंस जाएगा। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि देश में लाखों लोग घुमंतू जातियों के हैं। इन लोगों का बायोमैट्रिक आंकड़ा लेना संभव नहीं है। साथ ही शहरों में अस्थायी कामकाज के लिए आने वालों गरीबों का भी बायोमैट्रिक आंकड़ा लेना आसान नहीं हैं। इस तरह आबादी का एक बड़ा हिस्सा यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर के लिए बायोमैट्रिक आंकड़ा देने की गतिविधि में शामिल नहीं हो पाएगा और उस तरह उनकी जाति का हिसाब नहीं लगाया जाएगा। आप समझ सकते हैं कि इनमें से ज्यादातर लोग अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों से हैं। इस तरह स्पष्ट है कि बायोमैट्रिक के साथ जाति गणना कराने से एससी/एसटी/ओबीसी समूहों की संख्या घटकर आएगी। 
बायोमैट्रिक के नाम पर बहुत बड़ी साजिश
ताज्जुब की बात है कि 9 फरवरी से लेकर 28 फरवरी 2011 के बीच जब देश भर में जनगणना होगी और धर्म और भाषा से लेकर तमाम तरह के आंकड़े जुटाए जाएंगे तब जाति पूछ लेने में क्या दिक्कत है? जनगणना से जाति गणना के काम को बाहर करना एक बहुत बड़ी साजिश है, जिसका पर्दाफाश करना जरूरी है। 1871 से 1931 तक जनगणना विभाग जाति गणना का काम करता था और उस समय तो सरकारी कर्मचारी भी कम थे और कंप्यूटर भी नहीं थे। सवा सौ साल पहले अगर जनगणना के साथ जाति की गिनती होती थी, तो नए समय में इस काम को करने में क्या दिक्कत है।
यहां यह बात भी गौर करने लायक है कि 1931 की जनगणना अभी भी जाति की गिनती से मामले में देश का एकमात्र आधिकारिक दस्तावेज है और मंडल कमीशन से लेकर तमाम सरकारी नीतियों में इसी जनगणना के आंकड़े को आधार माना जाता है। 1931 की जनगणना के तरीकों को लेकर किसी भी तरह का विवाद नहीं है और न ही किसी कोर्ट ने कभी इस पर सवाल उठाया है। जाहिर है कि 1931 में जिस तरह जाति की गिनती जनगणना के साथ हुई थी, वह 2011 में भी संभव है। अब चूंकि कंप्यूटर और दूसरे उपकरण आ गए हैं, इसलिए इस काम को ज्यादा असरदार तरीके से किया जा सकता है। जाहिर है जनगणना के साथ जाति गणना न कराना एक साजिश के अलावा कुछ नहीं है। इसका मकसद सिर्फ इतना है कि किसी भी तरह से ऐसा बंदोबस्त किया जाए कि जाति के आंकड़े सामने न आएं।     
बायोमैट्रिक यानी आर्थिक-शैक्षणिक आंकड़े नहीं
बायोमैट्रिक ब्यौरा जुटाने के साथ जाति गणना को जोड़ने में और भी कई दिक्कतें हैं। इसकी एक बड़ी दिक्कत के बारे में केंद्रीय गृह सचिव जी. के. पिल्लई कैबिनेट नोट में लिख चुके हैं। बायोमैट्रिक आंकड़ा संकलन के साथ जाति की गिनती करने से जातियों से जुड़े सामाजिकआर्थिक और शैक्षणिक तथ्य और आंकड़े सामने नहीं आएंगे। जनगणना के फॉर्म में ये सारी जानकारियां होती हैं,जबकि बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ यह काम संभव नहीं है। बायोमैट्रिक आंकड़ा जुटाते समय लोगों से जो जानकारियां ली जाएंगी वे इस प्रकार हैं – नाम, जन्म की तारीख, लिंग, पिता/माता, पति/पत्नी या अभिभावक का नाम, पता, आपकी तस्वीर, दसों अंगुलियों के निशान और आंख की पुतली का डिजिटल ब्यौरा।[vi]
सामाजिकआर्थिक और शैक्षणिक आंकड़ों के बिना हासिल जाति के आंकड़े दरअसल सिर्फ जातियों की संख्या बताएंगेजिनका कोई अर्थ नहीं होगा। सिर्फ जातियों की संख्या जानने से अलग अलग जाति और जाति समूहों की हैसियत के बारे में तुलनात्मक अध्ययन संभव नहीं होगा। यानी जिन आंकड़ों के अभाव की बात सुप्रीम कोर्ट और योजना आयोग ने कई बार की हैवे आंकड़े बायोमैट्रिक के साथ की गई जाति गणना से नहीं जुटाए जा सकेंगे।
जाति जनगणना का लक्ष्य सिर्फ जातियों की संख्या जानना नहीं होना चाहिए। न ही जाति की गणना को सिर्फ आरक्षण और आरक्षण के प्रतिशत के विवाद से जोड़कर देखा जाना चाहिए। जनगणना समाज को बेहतर तरीके से समझने और संसाधनों तथा अवसरों के बंटवारे में अलग अलग सामाजिक समूहो की स्थिति को जानने का जरिया होना चाहिए। जनगणना में जाति को शामिल करने से हर तरह के सामाजिकशैक्षणिक और सामाजिक आंकड़े सामने आएंगे। इन आंकड़ों का तुलनात्मक अधघ्ययन भी संभव हो पाएगा। सरकार इन आंकड़ों के आधार पर विकास के लिए बेहतर योजनाएं और नीतियां बना सकती हैं। अगर ओबीसी की किसी जाति की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति बेहतर हो गई हैइसका पता भी जातियों से जुड़े तमाम आंकड़ों के आधार पर ही चलेगा। इन आंकड़ों से जातिवाद के कई झगड़ों का अंत हो जाएगा और नीतियां बनाने का आधार अनुमान नहीं तथ्य होंगे।
बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ जाति की गणना कराने में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि पहचान पत्र बनाने वाली एजेंसी को जनगणना का कोई अनुभव नहीं है,न ही उसके पास इसके लिए संसाधन या ढांचा है। जनगणना का काम जनगणना विभाग ही सुचारू रूप से कर सकता है। जनगणना के दौरान जाति की गणना करने से जनगणना विभाग इसकी निगरानी कर पाएगा। बायोमैट्रिक आंकड़ा संकलन के दौरान यह व्यवस्था नहीं होगी।[vii] इसे देखते हुए जाति गणना के काम को जनगणना विभाग के अलावा किसी और एजेंसी के हवाले करने का कोई कारण नहीं है।
बायोमैट्रिकएक अवैज्ञानिक तरीका
साथ ही नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर के लिए 15 साल से ज्यादा उम्र वालों की ही बायोमैट्रिक सूचना ली जाएगी। परिवार के बाकी लोगों के बारे में इन्हीं से पूछकर कॉलम भरने का समाधान गृह मंत्रालय दे रहा हैजो अवैज्ञानिक तरीका है।[viii]बायोमैट्रिक और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर का काम अभी प्रायोगिक स्तर पर है। इसे लेकर विवाद भी बहुत हैं। इसलिए यूनिक आईडेंटिफिकेशन नंबर और बायोमैट्रिक डाटा संग्रह के साथ जाति की गणना जैसे महत्वपूर्ण कार्य को शामिल करना सही नहीं है।



[i] सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का 12 अगस्त, 2010 को दिया गया बयानhttp://in.news.yahoo.com/43/20100812/818/tnl-caste-census-should-ensure-scientifi_1.html
[ii] योगेंद्र यादव का द हिंदू अखबार में 14 मई को छपा लेखhttp://beta.thehindu.com/opinion/op-ed/article430140.ece?homepage=true
[iii] समाचार पत्रों में छपी रिपोर्ट, यहां देखिए टाइम्स ऑफ इंडिया का लिंकhttp://timesofindia.indiatimes.com/india/GoM-clears-caste-query-in-census-at-biometric-stage/articleshow/6295048.cms
[iv] यूनिक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी की सरकारी वेबसाइट का होमपेज
[v] http://uidai.gov.in/ देखें इस साइट का FAQs सेक्शन, पूछा गया सवाल है -Will getting a UID be compulsory?
[vii] भारत के पूर्व रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त डॉ. एम विजयनउन्नी, कास्ट सेंसस: /टुअर्ड्स एन इनक्लूसिव इंडिया, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोशल एक्सक्लूशन एंड इनक्लूसिव पॉलिसी, नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी का प्रकाशन, पेज- 39  
[viii] केंद्रीय गृह सचिव जी. के. पिल्लई का मंत्रियों के समूह की बैठक में सौंपा गया नोट

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